आयुर्वेदीय वाङ्मय का इतिहास ब्रह्मा इन्द्र आदि देवों से सम्बन्धित होने के कारण अत्यन्त प्राचीन गौरवास्पद एव विस्तृत है । भगवान् धन्वन्तरि ने इस आयुर्वेद को तदिदं शाश्वतं पुण्यं स्वर्ग्य यशस्यमायुष्यं वृत्तिकरं चेति ( सु. सू १।११) कहा है । लोकोपकार की दृष्टि से इस विस्तृत आयुर्वेद को बाद में आठ अंगों में विभक्त कर दिया गया । तब से इसेअष्टांग आयुर्वेद कहा जाता है । इन अंगों का विभाजन उस समय के आयुर्वेदज्ञ महर्षियों ने किया । कालान्तर में कालचक्र के अव्याहत आघात से तथा अन्य अनेक कारणों से ये अंग खण्डित होने के साथ प्राय: लुप्त भी हो गये । शताब्दियों के पश्चात् ऋषिकल्प आयुर्वेदविद् विद्वानों ने आयुर्वेद के उन खण्डित अंगों की पुन : रचना की । खण्डित अंशों की पूर्ति युक्त उन संहिता ग्रंथों को प्रतिसंस्कृत कहा जाने लगा जैसे कि आचार्य दृढ़बल द्वारा प्रतिसंस्कृत चरकसंहिता । इसके अतिरिक्त प्राचीन खण्डित संहिताओं में भेड(ल)संहिता तथा काश्यपसंहिता के नाम भी उल्लेखनीय हैं । तदनन्तर संग्रह की प्रवृत्ति से रचित संहिताओं में अष्टांगसंग्रह तथा अष्टांगहृदय संहिताएँ प्रमुख एव सुप्रसिद्ध हैं । परवर्ती विद्वानों ने वर्गीकरण की दृष्टि से आयुर्वेदीय संहिताओं का विभाजन बृहत्त्रयी तथा लघुत्रयी के रूप में किया । बृहत्त्रयी में- चरकसंहिता सुश्रुतसंहिता तथा अष्टांगहृदय का समावेश किया गया है क्योंकिगुणा गुणतेषु गुणा भवन्ति । यह भी तथ्य है कि वाग्भट की कृतियों में जितना प्रचार- प्रसारअष्टांगहृदय का है उतनाअष्टांगसंग्रहका नहीं है । इसी को आधार मानकर बृहत्त्रयी रत्नमाला में हृदय रूप रत्न को लेकर पारखियों ने गूँथा हो ? चरक- सुश्रुत संहिताओं की मान्यता अपने- अपने स्थान पर प्राचीनकाल से अद्यावधि अक्षुण्ण चली आ रही है । अतएव इनका पठन- पाठन तथा कर्माभ्यास भी होता आ रहा है । यह भी सत्य है कि पुनर्वसु आत्रेय तथा भगवान् धन्वन्तरि के उपदेशों के संग्रहरूप उक्त संहिताओं में जो लिखा है वह अपने- अपने क्षेत्र के भीतर आप्त तथा आर्ष वचनों की चहारदिवारी तक सीमित होकर रह गया है तथा उक्त महर्षियों ने पराधिकार में हस्तक्षेप न करने की प्रतिज्ञा कर रखी थी । यह उक्त संहिताकारों का अपना-अपना उज्ज्वल चरित्र था । महर्षि अग्निवेश प्रणीत कायचिकित्सा का नाम चरकसंहिता और भगवान धन्वन्तरि द्वारा उपदिष्ट शल्यतन्त्र का नाम सुश्रुतसंहिता है । ये दोनों ही आयुर्वेदशास्त्र की धरोहर एव अक्षयनिधि हैं । उन -उन आचार्यो द्वारा इनमें समाविष्ट विषय-विशेष आयुर्वेदशास्त्र के जीवातु हैं अतएव ये संहिताएँ समाज की परम उपकारक है ।
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